7/20/23

चुप - शांत - सन्न

क्षुब्ध छिन्न विचलित 

मन व्यग्र अनवरत 

व्याकुल प्रति पल 

असहनीय अकल्पनीय 

असहाय शक्तिविहीन 

निराश नाउम्मीद 


हर पल 

हर ओर 

हर ह्रदय 

हर जीव 

है निरीह 

त्राहिमाम 

चहुँ ओर 


क्या ये अंत

आत्मीयता का 

मानवता का 

शर्म हया का 

इंसान का 

इंसानियत का 

या कुछ नहीं 


चुप - शांत - सन्न 


चक्षु बंद 

आत्म चिंतन  

विराम 

सब क्षणभंगूर

अत्यंत शांत 

आनंद 


माया दुःख जननी 

अहंकार कष्ट कारक

आसक्ति दुःख दायक 

12/11/13

एक अंतरद्वंद

(एक अंतरद्वंद को शब्द देने कि कोशिश कि है, फिर भी कुछ बचा रह गया, शब्द ही नहीं जुटा पाया...)

है किसका एहसास ये,
है किसकी ये चाहत,
जाने कैसी है ये बेचैनी,
जाने कैसी है ये उदासी...

अनजान से लगते हैं चेहरे सब,
बेजान से लगते हैं सपने अब,
जाने कैसी है ये बेरुखी,
जाने कैसी है ये ख़ामोशी...

है कैसी ये कमी जिंदगी में,
है कैसी ये नमी आँखों में,
जाने कैसी है ये बेचैनी,
जाने कैसी है ये उदासी...
-आशीष अंकुर 'अनजान' 
(शब्दों की कमी रह गयी, एहसास पूरी तरह नहीं उगल पाया, एक और कोशिश करूँगा कभी, शायद कल...)

7/1/13

किच-किच


किच-किच नहीं समझते! अरे! रोड पर बरसात के दिन में जब हवाई चप्पल पहन के निकलते थे, तब कीचड़-पाकी में किच-किच नहीं होता था | नहीं याद आया लगता है अब तक | चलिए बतियाते हैं, बरसात कि बात |
गर्मी के छुट्टी के बाद स्कूल खुलता था, और बारिश शुरू! रेनकोट, छाता, बरसाती, बाटा का सैंडक चप्पल, सब का तैयारी पहले से | बारिश होती थी, भींगते थे, डांट सुनते थे, फिर भी भींगते थे | फिर जो छत पर पानी जमा हो गया उसमें भी छप-छप | जब बहुत तेज बारिश होती थी, कागज के नांव भी चलते थे | फिर बारिश के बाद जो रोड का हाल होता था! पूछिए मत! किच-किच एकदम! और उस किच-किच रास्ते में जगह जगह ईंटा रख के जो लॉन्ग जम्प और बॉडी बैलेंस कराने वाला रास्ता बनता था, अब भी याद है | छोटे-छोटे पाँव और लंबी-लंबी छलांग | गज़ब- गज़ब चीजें याद आती हैं बरसात के नाम पर! बरसात के बाद फिर भुट्टा खाना और कभी-कभी लिट्टी-चोखा का भी माहौल बन जाता था | पता नहीं, क्या था! जो था, अच्छा लगता था | वजह बचपन थी या बेफिक्री... जो भी था अच्छा लगता था |

आज, उत्तराखंड का हश्र देख कर, कुछ समझ नहीं आता, किसको दोष दें, किसे जिम्मेवार ठहराए | बाढ़ तो हमारे बिहार में भी आते रहें हैं, हताहत भी हुए हैं | समझ ये भी नहीं आता क्या किया जाए! मतलब बिलकुल समझ नहीं आता! जरा सोचिये! एक किताब लिखी गयी थी किसी महापुरुष के द्वारा- विज़न २०२०! और उस इंसान ने पता नहीं कितने बार नदियाँ जोड़ने की बात कि होगी | मानता हूँ पहाड़ी बाढ़ का कोई जिम्मेवार नहीं है | पर जो सतह पर होता है, उसके लिए तो कुछ कर सकते हैं | महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कई राज्यों में लोग प्यासे मरते हैं | और बिहार-बंगाल जैसे कई जगहों पर  वही पानी जान ले लेता है | नदियों को कब जोडेंगे हम!!! जब रोड बना सकते हैं, तो नदियाँ क्यूँ नहीं जुड़ती!!! क्यूँ पहाड़ों पर जुल्म करते हैं हम! थोड़ा नदियों को पहाड़ों पर खेलने के बाद सतह पर उनके उर्जा का उपयोग क्यूँ नहीं करते | क्यूँ नदियों के यौवन में उन्हें उकसाया जा रहा है | क्यूँ हिमालय के उग्र रूप को ललकारा जा रहा है | जो प्राकृतिक है उसे वैसे ही रहने दे, वे वैसे ही सुन्दर हैं | उत्तराखंड में भूस्खलन और बादल फटना कोई नयी बात नहीं थी, नयी बात बस इतनी थी कि आज इतने एडवांस तकनीक के होते हुए भी, हम मौसम का अनुमान नहीं लगा पाते, पहाड़ कि गतिविधि, और मिट्टी को समझ नहीं पाते, या सब कुछ जानकार, और समझ कर भी बस महाटीया देते हैं | काहें!!!

अब सरकारों को दोष दे कर क्या फायदा, यहाँ चिचिया कर भी का कर लेंगे हम! झुठो का किच-किच करेंगे खाली | पता नहीं चल रहा, किस पर विश्वास करें, किस पर नहीं, पर सब कुछ जानकर अनजान बनना गलत है | 

चलिए! इ ऊपर त कुछ किच-किच कर दिए, अब कुछ काम बात लिखते हैं...

लिख कर तो कुछ तो होगा नहीं, सबको अपने हाथ बढ़ाने होंगे, बहुतों ने बहुत कुछ खोया है, इसलिए सबके सहयोग से ही कुछ हो सकता है |
अगर आप कि भी इच्छा हो तो 'गूंज' नाम के इस एन.जी.ओ. के माध्यम से आप कुछ सहयोग कर सकते हैं, लिंक है -  http://goonj.org/?page_id=2245

5/12/13

चिचरी


चिचरी का मतलब समझते हैं? नहीं!? अरे बचपन में स्लेट पर 'चिचरी' नहीं 'खींचें' हैं का कभी? हम भी अभी वही चिचरी खींच रहे हैं अपने ब्लॉग पर...
बड़ी दिन बाद आज सूर धर लिया, हाथ तो बड़ी दिन से 'खजुआ' रहा था, कुछ टिप-टाप के डाला जाए ब्लॉग के ऊपर, पर कुछ टॉपिक आ ही नहीं रहा था दिमाग में| कभी अन्ना हजारे आते थे तो  कभी केजरीवाल, कभी निर्भया आती थी तो कभी गुड़िया, कभी फेकू आते थे तो कभी पप्पू, कभी पाकिस्तान आता था तो कभी चीन, कभी सरबजीत आते थे तो कभी सनाउल्लाह, कभी मनमोहन आते थे तो कभी ख़ामोशी... मतलब समझ नहीं आता है की कौन सा टॉपिक उठाया जाए| मतलब सब के सब बेकार ही थे| दिल्ली में हल्ला करेंगे आ कर्नाटक पहुँचते-पहुँचते सब हल्ला शांत हो जाता है| का कीजियेगा, हम सब पब्लिक ही हैं न, कोई मुद्दा का कौनो मतलब नहीं है| आराम से रूम में बैठ के चम्पिंग-चपांग करने में मजा है|
हम भी बईठले हैं| कौनो काम नहीं है, आ कुछु फरक भी नहीं पड़ता है| खाली चीनी आ पियाज का दाम कंट्रोल में रहना चाहिए| पेट्रोल-डीजल का भी टेंशन नहीं है, मोटर साइकिल भी तो नहीं मेरे पास| मतलब सच बोले, तो आज के डेट में हमको कौनो चीज एफ्फेक्ट नहीं करता है, बस अपना काम निकलते रहना चाहिए| अब हैदराबाद में बम फटे चाहे बंगलोर में, हमको उस से क्या, हम तो अपने घर में सुत्तल रहते हैं| आ दूसरा बात इ भी है, हम तो लड़का हैं, हमारे साथ कौनो 'उ' सब होने का भी चांस नहीं है, तब आप ही बोलिए, कौनो टेंशन है हमको???
बड़ी दिन से हल्ला किये था सब एक साल पाहिले जंतर मंतर चलने के लिए, कैंडल मार्च करने के लिए, जय अन्ना-जय गाँधी, जय लोकपाल करने के लिए| भाक्! कुच्छो हुआ???
फिर हल्ला चालु हुआ निर्भया-गुड़िया का! फिर वही हल्ला-हंगामा! कुच्छो हुआ! 
फिर हल्ला हो रहा था नामो-रागा का, कुच्छो हुआ!
कुच्छो नहीं होगा??? कौनो विकल्प है 'आप'के पास??? बतायिए, अगर बोलना नहीं है तो कम से कम सोचिये|
इसलिए हम हमेशा बोलते हैं, सब बेकार है, बस चिचरी खीचये, हल्ला किजीये, फिर तो समय के साथ हम सब के दिमाग के स्लेट से सब कुछ मिट ही जाएगा, क्या टेंशन है| काहें ला इंडिया गेट आ जंतर मंतर को जलियावाला बाग बनाना चाहते हैं!
हम बोल रहे हैं, आ समझा रहे हैं, कुच्छो मत कीजिये, बस चुप-चाप सुत्तल रहिये! कौनो फरक नहीं पड़ने वाला, 2013 चल रहा है, तुरंते 2014 भी आ जाएगा, आ फिर इसी तरह 2020 भी आ जायेगा, तब तक तो आइये  जाएगा हमारा 'विज़न 2020'! का टेंशन है, सब ठीक हो जाएगा, सुत्तल-सुत्तल|
हम तो 'थेथर' हैं, ब्लॉग को गन्दा करते ही रहेंगे, चिचरी खिंचबे करेंगे, अब आपको पढ़ना है तो पढ़िए, आ हमको गरियाना है तो गरियाइये| आदत नहीं छूटेगा मेरा| आ एक और बात अब से ऐसा ही चिचरी खीचेंगे हम|
इसलिए, आराम से सुत्तल रहिये खाली!!!

11/30/11

क्यूँकि आज बड़े हो गए हैं हम!


सपने ज्यादा और नींदें हो गयी है कम...
हँसी ज्यादा और खुशी हो गयी है कम...
धड़कन ज्यादा और सांसें हो गयी हैं कम...
भीड़ ज्यादा और अपने हो गए हैं कम...
क्यूँकि आज बड़े हो गए हैं हम!

नींदों में सपने तो हैं, पर सच्चाई है कम...
हँसी में खुशी तो है, पर जज्बात है कम...
साँसों में धड़कन तो है, पर जिंदगी है कम...
भीड़ में अपने तो हैं, पर अपनापन है कम...
क्यूँकि आज बड़े हो गए हैं हम!

नींद आती तो है, पर कल का डर सोने नहीं देता...
हँसी आती तो है, पर रोने का डर खुश होने नहीं देता...
धडकनें चलती तो हैं, पर उम्र ये साँसें लेने नहीं देता...
अपने मिलते तो हैं, पर ये मुखौटा भरोसा करने नहीं देता...

आखें भर आई हैं आज, कर के याद बचपन...
क्यूँकि आज बड़े हो गए हैं हम!

4/21/11

भूल पाना तुमको...


ये कविता मैंने कुछ महीनों पहले लिखी थी... कवि बनने कि कोशिश कर रहा था... अगर कोशिश सफल हुई तो बताईएगा...


बहुत मुश्किल  है...
भूल पाना तुमको...
पता नहीं क्यूँ...


सोचता हूँ शायद...
भूल जाऊंगा तुम्हे,
समय के साथ...


पर इतना भी आसान नहीं...
अपनी भावनाओं को दबा कर रखना...
अपने प्यार का क़त्ल करना...


पता नहीं क्यों हर घड़ी ...
एक आस सी जगती रहती है...
सीने के किसी कोने में...


एक ऐसी अगन जो...
नहीं चाहते हुए भी...
तुम्हे ही याद करती है...


ऐसा लगता है...
शायद कुछ छूट रहा है...
हर घडी, हर पल के साथ...


जिन्दगी की रफ़्तार से...
लड़ रहा हूँ में...
केवल इसलिए की...


शायद कोई तो कल आये...
जो उस कल को फिर से...
दुहराए और मैं जी सकूँ उसे...


उस कल को जिसकी...
कल्पना कभी की थी...
मैंने उन रातों में...


जिन रातों में मैं...
देखा करता था सपने...
जिनमें तुम होती थी...


पर तुम उन सपनों में होकर भी...
ना होने के बराबर ही थी...
फिर भी उस समय...


एक आस थी की...
कल जरूर तुम मिलोगी...
और मैं तुमसे बातें कर सकता था...


पर आज जब बंद हो गए हर...
वो रास्ते जो कभी ...
मिलाया करते थे मुझे तुमसे...


बंद हो गयी वो हर आस...
जिन्हें मैंने कभी किसी समय...
पाला था कही किसी कोने में...


पर ना जाने क्यूँ फिर भी...
बहुत मुश्किल है...
भूल पाना तुमको...

2/9/11

प्रश्न ...


ज़माने को वही समझा रहा हूँ मैं,
जो खुद को समझा समझा कर हार चुका हूँ...

दूर से अँधेरे में भी रौशनी खोज रहा हूँ मैं,
ये जानते हुए भी कि रास्ते के छोर तक पहुँच चुका हूँ...

काँटों भरे डाल पर भी कलियों को ढूंढता हूँ मैं,
पर अफ़सोस उस पौधे को ही काट चुका हूँ...

आज, अचानक फिर भी क्यूँ गा रहा हूँ मैं,
जबकि ह्रदय के सुर को ही खो चुका हूँ...

ज़माने को देने के लिए खुद ही जवाब हूँ मैं,
पर प्रश्न तुम्हे ही खो चुका हूँ...

ज़माने को वही समझा रहा हूँ मैं,
जो खुद को समझा समझा कर हार चुका हूँ...