2/9/11

प्रश्न ...


ज़माने को वही समझा रहा हूँ मैं,
जो खुद को समझा समझा कर हार चुका हूँ...

दूर से अँधेरे में भी रौशनी खोज रहा हूँ मैं,
ये जानते हुए भी कि रास्ते के छोर तक पहुँच चुका हूँ...

काँटों भरे डाल पर भी कलियों को ढूंढता हूँ मैं,
पर अफ़सोस उस पौधे को ही काट चुका हूँ...

आज, अचानक फिर भी क्यूँ गा रहा हूँ मैं,
जबकि ह्रदय के सुर को ही खो चुका हूँ...

ज़माने को देने के लिए खुद ही जवाब हूँ मैं,
पर प्रश्न तुम्हे ही खो चुका हूँ...

ज़माने को वही समझा रहा हूँ मैं,
जो खुद को समझा समझा कर हार चुका हूँ...



3 प्रतिक्रियाएँ:

chandan said...

ऐसा क्या है आपके दिल में?
जो लिख डाला इतना मधुर.
हमें भी कुछ बताइए;
शायद हमसे ही कुछ काम बने.

Unknown said...

"ज़माने को देने के लिए खुद ही जवाब हूँ मैं,
पर प्रश्न तुम्हे खुद ही खो चूका हूँ." बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ आशीष जी |
एक सुझाव - " चूका" को "चुका " से परिवर्तित कर दीजिये ..

कुछ एक - दो पंक्तियाँ मेरी तरफ से -

"यूँ हँसते और गाते बढे ही जा रहा हूँ मै
किसी को क्या पता दिल में मै क्या क्या छिपाए हूँ ..

आँखों के आंसू सूख कर मोती हुए मेरे
अब उन मोतियों से लोगों में खुशियाँ बिखराता हूँ ...|"
-अक्षय ठाकुर "परब्रह्म"

आशीष अंकुर said...

@ चन्दन- ये एक कर्यविहीन छुट्टी की उपज है|
@ अक्षय जी- 'शायद कल ही की बात है...' पर आने के लिए शुक्रिया... बहुत ही बढ़िया पंक्तियाँ लिख डाली आपने... त्रुटी बताने के लिए धन्यवाद...

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